अभी मसिजीवी ने महगाईं पर लिखा है. बढ़िया लिखा है! बढ़िया विषय भी है! आखिर हम क्यों नहीं लिख पाते हैं या यूँ कहें कि सहानुभूति या तदनुभूति के आधार पर भी दूसरे के दर्द को समझ क्यों नहीं पाते हैं. हिन्दी के कवि व आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने एक बार कार्यक्रम में बताया कि आखिर महंगाई में आटा गीला का मुहावरा क्यों आया. आलू की सब्जी में थोड़ा ज्यादा पानी हो जाए तो कोई बात नहीं लेकिन थोड़ा पानी आटा में अधिक चला जाए तो रोटी कैसे बनेगी...आटा तो और है नहीं. उनके कथन को 'मोट तौर पर'
यही अर्थ था. हमारे नहीं लिख पाने का कारण शायद यह है कि अगर कभी आटा गीला हो भी जाता है तो हम और आटा उसमें मिला कर संतुलित कर लेते हैं. तो क्या हम इसलिए नहीं लिख पाते हैं कि यह दर्द हमारे संदर्भों से मेल नहीं खाता...इसलिए हम अब मुहावरों का अर्थ तो समझते हैं लेकिन उसके होने के माएने नहीं जानते. इसलिए आटा तो लगातार गीला होता जा रहा है लेकिन हमारी रोटी तो बनती जा रही है.
मुझे एक कविता याद आ रही है...शायद सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की है (यदि मैं गलत होऊँ तो कृपया सुधारें)...
गोली खाकर
एक के मुँह से निकला - राम
दूसरे ने कहा - माओ
तीसरे ने बोला - रोटी
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है
पहले दो के पेट भरे हुए थे
जाहिर है मैं खुद से इसकी उम्मीद क्यों नहीं कर सकता हूँ तो वजह साफ है. मैं उस दर्द को लिख पाऊँ कि भूख क्या होती है... मुश्किल है. मैंने मटियानी की कुछ कहानियां पढ़ी हैं...उनके संस्मरण पढ़े हैं. लेकिन उनकी लेखनी से भूख की तिलमिलाहट को महसूस कर सकता हूँ. 'बुद्धिजीवियों' के बीच इस बहस को चलाने के लिए मसिजीवी को धन्यवाद.
5 comments:
सही है, सिपाही..
आपने मटियानी का नाम लिया नामालूम भूख के कितने किस्से आखों के आगे से गुजर गये. धन्यवाद.
देश में अक्सर लोग भूख से गुजर जाते हैं.
बिल्कुल सही. सक्सेना जी की कविता पेश करने का आभार.
ह्म्म्म ! एक ज़रूरी पोस्ट मसिजीवी जी की ।
मुद्दे को हाइलाइट करने के लिए आपका धन्यवाद !
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