21 जनवरी 2008 को मैरी स्मिथ जोन्स की मृत्यु हो गयी थी। मेरी जोन्स की मृत्यु महज एक व्यक्ति की मृत्यु नहीं कही जा सकती। वह दक्षिणी मध्य अलास्का की एयाक भाषा बोलने वाली अंतिम जीवित व्यक्ति थी। उनकी मौत के बाद एयाक भाषा बोलने वाला एक भी व्यक्ति नहीं बचा। और इस प्रकार सीमित भाषायी विविधता वाले मौजेक से एक रंग हमने खो दिया। थोड़ा अजीब लग सकता है लेकिन भाषाएँ मरती हैं, लगातार मर रही हैं। हालाँकि पचने लायक बात नहीं लगती है लेकिन यह एक तथ्य है। कुछ-कुछ स्थिति शेर जैसे जानवरों की तरह है।
भाषाओं के मरने के कारण कुछ भी हो सकते हैं। अगर बोलने वालों की संख्या महज दो-एक है, तो साधारण सर्दी, खांसी, बुखार भी उस भाषा के मरने का तात्कालिक कारण बन सकता है। बाहरी ताकतों में सैन्य, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक या शैक्षिक अधीनता, नरसंहार, प्राकृतिक आपदाएँ, बाँझपन, रोग, सांस्कृतिक/ राजनैतिक/आर्थिक आधिपत्य, राजनीतिक दमन आदि कारण हो सकते हैं। आंतरिक ताकतों में सांस्कृतिक सात्मीकरण एक बड़ा कारण है। भाषा-भाषी समुदाय की अपनी भाषा के प्रति नकारात्मक सोच भी एक बड़ा कारण है। भारी उत्प्रवासन और तेज नगरीकरण भी इसके लिए जिम्मेदार हैं।
बहुतेरी भाषाएँ मरने के कगार पर हैं। 96 प्रतिशत भाषाएँ मात्र चार प्रतिशत आबादी द्वारा बोली जाती हैं। 500 भाषाओं को बोलने वालों की संख्या 100 ही है; 1500 भाषाओं को 1000 से कम लोग बोलते हैं और 5000 भाषाओं को 100,000 से कम बोलने वाले हैं। धीरे-धीरे एक के बाद एक मरते जा रहे हैं। न केवल भाषाएँ मरती हैं; एक भाषा के साथ सामुदायिक इतिहास, बौद्धिक और सांस्कृतिक विविधता, सांस्कृतिक पहचान भी मर जाती हैं! यह क्षति सबकी क्षति है; एक तरह से स्थायी क्षति! करीब 3000 भाषाएँ अगले 100 साल में मर जाएँगी। हर दो सप्ताह में एक भाषा मर रही है। जितनी अधिक विविधता है, उतना ही अधिक खतरा है। और इसलिए भारतीय भाषाएँ भी उसकी जद में है। 197 भाषाएँ भारत में मरने के कगार पर हैं और उनमें से एक है हमारी अंगिका।
यूनेस्को के भाषायी एटलस को देखें तो पाएँगे कि अंगिका की स्थिति नाजुक है। लुप्तप्राय भाषा को उसकी संकट की गंभीरता की स्थिति के आधार पर चार प्रकारों में बाँटा गया है। अंगिका अपने आरंभिक चरण में है। नाजुक यानी Vulnerable स्थिति में अधिकतर बच्चे तो उस भाषा को अब भी बोलते हैं लेकिन यह सीमित क्षेत्रों उदाहरण के लिए घर तक सीमित रह गया है। दूसरी स्थिति निश्चित रूप से लुप्तप्राय यानी Definitely endangered में बच्चे बतौर मातृभाषा अपनी भाषा को बोलना बंद कर देते हैं। अत्यधिक लुप्तप्राय यानी Severely endangered स्थिति में उस भाषा को बोलने वाले केवल पुरानी पीढ़ी के लोग हैं लेकिन माता-पिता अब अपनी भाषा को अपने बच्चों के साथ नहीं बोलते हैं। विकट लुप्तप्राय यानी Critically endangered स्थिति में उस भाषा को बोलने वाले केवल दादा-दादी-नाना-नानी की पीढ़ी के लोग हैं और वे लोग भी अपनी भाषा को आंशिक रूप से बोलते हैं। अंगिका संकट की आरंभिक स्थिति में दर्ज की गयी है।
डेविड क्रिस्टल के द्वारा परिभाषित भाषा की मौत के तीन चरण अंगिका और ऐसी ही किसी भाषा पर सटीक बैठ सकती है। मौत की ओर के तीन कदम में पहला है प्रभु भाषा बोलने का दबाव। बेहतर जीवन पाने की आशा में यह कदम लिए जाते हैं। धीरे-धीरे जनसंख्या द्विभाषी होती जाती हैं और आरंभिक द्विभाषीय स्वरूप धीरे-धीरे समाप्त होने लगता है और आदमी एक ही प्रभु भाषा बोलने की कोशिश करने लगता है और अंततः एक ही भाषा बोलने लगता है। लोगों को अपनी भाषा बोलने में शर्म आने लगती है। और वह भाषा खत्म हो जाती है। लिनियर_ए और हरप्पा लिपि जहाँ उकेरी हुई हैं वह अब शांत, मौन और ठंडी पड़ गयी हैं। ग्रेंगर मियडर कहते हैं कि मैरी की तरह ये कोई कहानी कहने के लिए नहीं बची हैं।
हालाँकि अंगिका मुश्किल में दिखती हैं लेकिन स्थिति विकट नहीं है। बहुतेरे क्षेत्र में काम हो रहे हैं। अंगिका में साहित्य उपलब्ध हैं। लोग लिख रहे हैं। कुछेक फिल्में भी बनी हैं। सुना है कि शब्दकोश आदि भी तैयार किए गए हैं। लेकिन इस बदलते परिवेश में सबसे जरूरी है अंगिका को सूचना-प्रौद्योगिकी के पटल लाना, ताकि डिजिटल युग में हम अंगिका की मौजूदगी को रेखांकित कर सकें।
कई ओपन सोर्स प्रोजेक्ट हैं जहाँ अंगिका की उपस्थिति इसके वजूद को स्थायित्व प्रदान करेगी। फ्यूल प्रोजेक्ट एक ओपन सोर्स प्रोजेक्ट है और इसके तहत कंप्यूटिंग शब्दावली के निर्माण की दिशा में बढ़ा जाएगा। फ़ायरफ़ॉक्स, फेडोरा आदि को भी अंगिका में उपलब्ध कराना चाहिए और हम समुदाय की मदद से इस दिशा में शुरूआत भी हमने कर दी है। अंगिका लोकेल निर्माण का सबसे प्रारंभिक काम हमने पूरा कर लिया है और उम्मीद है कि जल्द ही एक भरा-पूरा डेस्कटॉप हम देखेंगे। हमने बिहार के मधेपुरा में एक कार्यक्रम भी किया था - सिद्धांत प्रकाशन के सहयोग से। कई रामलखन सिंह, हरिशंकर श्रीवास्तव, के.के.मंडल, सच्चिदानंद यादव समेत कई विद्वान उपस्थित थे। लोगों ने शिद्दत से महसूस किया कि अंगिका पर काम करना जरूरी है ताकि भाषा समेत एक भरी-पूरी संस्कृति को उसकी संपूर्णता में सहेजकर रखा जा सके। भागलपुर के डा. अमरेन्द्र ने भी लगातार सहयोग किया है और संबल बढ़ाया है। देखें, भाषा की सामुदायिक ताकत हमें कहाँ तक ले जाती है। जल्द ही हम भागलपुर में अंगिका कंप्यूटिंग पर एक गोष्ठी करेंगे।
भाषाएँ हमारी जड़ हैं और इन्हें सींचकर हम खुद को ही जिंदा रखेंगे। और सबसे महत्वपूर्ण रूप से कोई भाषा कमजोर या मजबूत नहीं होती हैं। एलिटेट नेम्टुश्किन की 'मेरी भाषा' कविता से यह पंक्ति उधार ले रहा हूँ - How can I believe the foolish idea /That my language is weak and poor /If my mother's last words /Were in Evenki?
भाषाओं के मरने के कारण कुछ भी हो सकते हैं। अगर बोलने वालों की संख्या महज दो-एक है, तो साधारण सर्दी, खांसी, बुखार भी उस भाषा के मरने का तात्कालिक कारण बन सकता है। बाहरी ताकतों में सैन्य, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक या शैक्षिक अधीनता, नरसंहार, प्राकृतिक आपदाएँ, बाँझपन, रोग, सांस्कृतिक/ राजनैतिक/आर्थिक आधिपत्य, राजनीतिक दमन आदि कारण हो सकते हैं। आंतरिक ताकतों में सांस्कृतिक सात्मीकरण एक बड़ा कारण है। भाषा-भाषी समुदाय की अपनी भाषा के प्रति नकारात्मक सोच भी एक बड़ा कारण है। भारी उत्प्रवासन और तेज नगरीकरण भी इसके लिए जिम्मेदार हैं।
बहुतेरी भाषाएँ मरने के कगार पर हैं। 96 प्रतिशत भाषाएँ मात्र चार प्रतिशत आबादी द्वारा बोली जाती हैं। 500 भाषाओं को बोलने वालों की संख्या 100 ही है; 1500 भाषाओं को 1000 से कम लोग बोलते हैं और 5000 भाषाओं को 100,000 से कम बोलने वाले हैं। धीरे-धीरे एक के बाद एक मरते जा रहे हैं। न केवल भाषाएँ मरती हैं; एक भाषा के साथ सामुदायिक इतिहास, बौद्धिक और सांस्कृतिक विविधता, सांस्कृतिक पहचान भी मर जाती हैं! यह क्षति सबकी क्षति है; एक तरह से स्थायी क्षति! करीब 3000 भाषाएँ अगले 100 साल में मर जाएँगी। हर दो सप्ताह में एक भाषा मर रही है। जितनी अधिक विविधता है, उतना ही अधिक खतरा है। और इसलिए भारतीय भाषाएँ भी उसकी जद में है। 197 भाषाएँ भारत में मरने के कगार पर हैं और उनमें से एक है हमारी अंगिका।
यूनेस्को के भाषायी एटलस को देखें तो पाएँगे कि अंगिका की स्थिति नाजुक है। लुप्तप्राय भाषा को उसकी संकट की गंभीरता की स्थिति के आधार पर चार प्रकारों में बाँटा गया है। अंगिका अपने आरंभिक चरण में है। नाजुक यानी Vulnerable स्थिति में अधिकतर बच्चे तो उस भाषा को अब भी बोलते हैं लेकिन यह सीमित क्षेत्रों उदाहरण के लिए घर तक सीमित रह गया है। दूसरी स्थिति निश्चित रूप से लुप्तप्राय यानी Definitely endangered में बच्चे बतौर मातृभाषा अपनी भाषा को बोलना बंद कर देते हैं। अत्यधिक लुप्तप्राय यानी Severely endangered स्थिति में उस भाषा को बोलने वाले केवल पुरानी पीढ़ी के लोग हैं लेकिन माता-पिता अब अपनी भाषा को अपने बच्चों के साथ नहीं बोलते हैं। विकट लुप्तप्राय यानी Critically endangered स्थिति में उस भाषा को बोलने वाले केवल दादा-दादी-नाना-नानी की पीढ़ी के लोग हैं और वे लोग भी अपनी भाषा को आंशिक रूप से बोलते हैं। अंगिका संकट की आरंभिक स्थिति में दर्ज की गयी है।
डेविड क्रिस्टल के द्वारा परिभाषित भाषा की मौत के तीन चरण अंगिका और ऐसी ही किसी भाषा पर सटीक बैठ सकती है। मौत की ओर के तीन कदम में पहला है प्रभु भाषा बोलने का दबाव। बेहतर जीवन पाने की आशा में यह कदम लिए जाते हैं। धीरे-धीरे जनसंख्या द्विभाषी होती जाती हैं और आरंभिक द्विभाषीय स्वरूप धीरे-धीरे समाप्त होने लगता है और आदमी एक ही प्रभु भाषा बोलने की कोशिश करने लगता है और अंततः एक ही भाषा बोलने लगता है। लोगों को अपनी भाषा बोलने में शर्म आने लगती है। और वह भाषा खत्म हो जाती है। लिनियर_ए और हरप्पा लिपि जहाँ उकेरी हुई हैं वह अब शांत, मौन और ठंडी पड़ गयी हैं। ग्रेंगर मियडर कहते हैं कि मैरी की तरह ये कोई कहानी कहने के लिए नहीं बची हैं।
हालाँकि अंगिका मुश्किल में दिखती हैं लेकिन स्थिति विकट नहीं है। बहुतेरे क्षेत्र में काम हो रहे हैं। अंगिका में साहित्य उपलब्ध हैं। लोग लिख रहे हैं। कुछेक फिल्में भी बनी हैं। सुना है कि शब्दकोश आदि भी तैयार किए गए हैं। लेकिन इस बदलते परिवेश में सबसे जरूरी है अंगिका को सूचना-प्रौद्योगिकी के पटल लाना, ताकि डिजिटल युग में हम अंगिका की मौजूदगी को रेखांकित कर सकें।
कई ओपन सोर्स प्रोजेक्ट हैं जहाँ अंगिका की उपस्थिति इसके वजूद को स्थायित्व प्रदान करेगी। फ्यूल प्रोजेक्ट एक ओपन सोर्स प्रोजेक्ट है और इसके तहत कंप्यूटिंग शब्दावली के निर्माण की दिशा में बढ़ा जाएगा। फ़ायरफ़ॉक्स, फेडोरा आदि को भी अंगिका में उपलब्ध कराना चाहिए और हम समुदाय की मदद से इस दिशा में शुरूआत भी हमने कर दी है। अंगिका लोकेल निर्माण का सबसे प्रारंभिक काम हमने पूरा कर लिया है और उम्मीद है कि जल्द ही एक भरा-पूरा डेस्कटॉप हम देखेंगे। हमने बिहार के मधेपुरा में एक कार्यक्रम भी किया था - सिद्धांत प्रकाशन के सहयोग से। कई रामलखन सिंह, हरिशंकर श्रीवास्तव, के.के.मंडल, सच्चिदानंद यादव समेत कई विद्वान उपस्थित थे। लोगों ने शिद्दत से महसूस किया कि अंगिका पर काम करना जरूरी है ताकि भाषा समेत एक भरी-पूरी संस्कृति को उसकी संपूर्णता में सहेजकर रखा जा सके। भागलपुर के डा. अमरेन्द्र ने भी लगातार सहयोग किया है और संबल बढ़ाया है। देखें, भाषा की सामुदायिक ताकत हमें कहाँ तक ले जाती है। जल्द ही हम भागलपुर में अंगिका कंप्यूटिंग पर एक गोष्ठी करेंगे।
भाषाएँ हमारी जड़ हैं और इन्हें सींचकर हम खुद को ही जिंदा रखेंगे। और सबसे महत्वपूर्ण रूप से कोई भाषा कमजोर या मजबूत नहीं होती हैं। एलिटेट नेम्टुश्किन की 'मेरी भाषा' कविता से यह पंक्ति उधार ले रहा हूँ - How can I believe the foolish idea /That my language is weak and poor /If my mother's last words /Were in Evenki?
2 comments:
It is funny that I read this article using an online translator.
In California, where I am from, almost all of the dozen indigenous languages will soon be dead. The indigenous languages of the Los Angeles area are all basically dead.
Even so, there are many foreign immigrants here in Los Angeles. 200 languages are spoken here. Unfortunately, most children of immigrants don't learn their parents' languages very well.
Four generations ago, my ancestors spoke Swedish or Irish or German. I know none of these.
Aapne angika ke mukhya sachetak or purodha prashuram thakur brahmvadi ji ka jikr nhi kiya h. .main batana chaunga ki angdesh or angika ko visv star par le Jane me enka yogdan kafi h. . avi tak 18 pustako ki rachna kar enhone duniya bhar ke vidwano ka dhyan angdesh ki or khicha h. . desh ke kai pratistith prakashko ne enke grantho ko prakashit kiya h . 42 salo se enki mehnat aaj v jari h
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