कोसी इलाके का हूँ शायद इसलिए परेशान ज्यादा हूँ...जाने पहचाने चेहरों, गलियों, सड़कों का दर्द, उनसे जुड़ी पीड़ा शायद ज्यादा सीधी लगती है. पुणे में रहकर क्या करूँ...न्यूज़ जिस वक्त खोज रहा था उस समय चैनलों के अपने धंधे चल रहे थे. फोन पर हर अपनों से पूछते-पूछते परेशान था कि क्या कर रहे हैं...क्या हालत है. अब तो चैनलों की टीआरपी को भी यह ख़बर अब रास आ रही है. बस ज्यादा कुछ बकबक करने की इच्छा नहीं हो रही है. बस, इस दुख की घड़ी में कुछ कविताएँ याद आ रही हैं...
"पत्थरों पर पानी सर सर फोड़ता था
पानी के आदमियों जैसे हजार-हजार सर
और धुंध में जमता झाग
रात में चमकता हुआ"
- मंगलेश डबराल
"पानी में दिखता है कभी तेज बहाव में
छटपटाता हुआ कोई
बेमानी मगर उसकी छटपटाहट बिलकुल निरूपाय
कि बचाने की पुरानी रिवायत खत्म हो चुकी"
-पंकज सिंह
सचमुच 'बचाने की पुरानी रिवायत खत्म हो चुकी है' और विष्णु खरे की उधार लें तो लगता है कि "बादल और नदियाँ सूरज, हवा और घरती से मिलकर अपना निर्मम और व्यापक बदला लेते हैं." अंत में कौसिकी के धार में पले बढ़े नागार्जुन की सुनें:
गाछी सुखा गेल
कलमबाग नष्ट भेल
उजड़ल देहात
बिगड़ल बसात
लोकवेद बेहाल
पड़ल अकाल
मुइल माल-जाल
कतहु रहल ने शेष
आरि धुरक ने रेख
लै गेल बहाय सभक
खेत औ' पथार
कौसिकीक धार !
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