Wednesday, March 26, 2008

भारतीय उपमहाद्वीप, स्थानीयकरण आंदोलन और मुक्त स्रोत




भारत के प्रसिद्ध कन्नड़ लेखक यू.आर.अनंतमूर्ति ने एक साक्षात्कार में बताया था कि भाषाएं तहजीब की खजाना होती हैं। भाषाओं की इस तहजीब को योग्य व समर्थ बनाने की अहमियत न केवल इसे जीवित रखने में बल्कि इसे पल्लवित पुष्पित करना आज के डिजीटल दुनिया में कम जरूरी नहीं रह गया है। यदि कोई भाषा डिजिटल जमाने यानी प्रगति का भाग नहीं होती है, तो वह भाषा पुरानी हो जाएगी, अपना वजूद खो देगी, उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा और कुछ मायनों में वह गुजरे जमाने की वस्तु बन जायेगी। भाषा का अन्त का मतलब है सभ्यता की मौत। धन्यवाद है फ्री साफ्टवेयर विचारधारा और समकालीन ओपन सोर्स विकास प्रक्रिया, जिसने कई विभिन्न भाषाओं को नवजीवन दिया। हम कितने छोटे हैं, हमारी तादाद कितनी है, वहां यह कोई अर्थ नहीं रखता है। फ्री व ओपेन साफ्टवेयर अन्य ब्यूरोक्रेटिक प्रक्रिया से भिन्न आप सहित प्रत्येक व्यक्ति को, स्थानीय भाषा कम्प्यूटिंग को योग्य बनाने के लिए योगदान और इस कारण ग्रामीण भारत में कम्प्यूटर द्वारा तकनीक को अपनाने की प्रक्रिया को गतिशील करने के लिए सक्षम बनाता है। हम सभी महात्मा गांधी के उद्धरण की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकते कि ”आप जो कुछ भी करते है, वह महत्वपूर्ण नहीं भी हो सकता है, लेकिन यह बहुत महत्वपूर्ण है कि आप इसे करते हैं।” यह एक सच्चाई है कि मालिकाना समूह उन आम लोगों की आवश्यकता को पूरा करने को तत्पर नहीं होती, खासकर क्रय शक्ति की अर्थव्यवस्था में, लेकिन हम ओपेन सोर्स कम्प्यूटिंग में आम जनों के सरोकार से सम्बन्धित अवसर पैदा कर सकते हैं।

भारत में, कई समूह कम्प्यूटर पर भाषा सम्बन्धी कार्य कर रहे है. “लोकलाइजिंग फ्री सॉफ्टवेयर फॉर ए फ्री कंट्री” के नारे के साथ इंडलिनक्स (www.indlinux.org) एक व्यापक और लोकप्रिय ग्रुप है जिन्हें इस कार्य में काफी सफलता मिली है। इंडलिनक्स ऐसे लोगों का समूह है जो बिना किसी हैरानी के विश्वास जताते हैं कि सूचना तकनीक के फायदे आम भारतीयों को व्यापक तौर पर मुफ्त उपलब्ध होना चाहिए। इस संगठन ने कई नये समूहों को आगे आकर साथ-साथ कार्य करने के लिए प्रेरित किया है। पनलिनक्स (http://punlinux.sourceforge.net) बेहद कामयाब मिसाल है। दो वर्षो के दरम्यान इस समूह ने भारत की स्पदंन पूर्ण भाषा एवं संस्कृति पंजाबी में भारी मात्रा में तकनीक को स्थानीयकृत किया है। हर चीज चाहे वह फेडोरा हो, या गनोम, या केडीई या फिर ओपनऑफिस और सब कुछ सभी ! ग्रामीण भारत में फली-फूली एक संगठन की बड़ी सफल कहानी ! पनलिनक्स के किसी भी सदस्य का कोई शहरी आधार नहीं। भाषा एवं ओपेन सोर्स के लिए स्नेह का मिश्रण इस उदाहरण ने अविश्सनीय परिणामों को जन्म दिया है।

लिनक्स के भारतीयकरण के लिए कई प्रयास किये जा रहे हैं। एक बड़ी कोशिश, अंकुर (www.bengalinux.org), पहला सामूहिक कदम है बंगाली को फ्लॉस डेस्कटॉप पर लाने का। अंकुर का मुख्य लक्ष्य है जीएनयू/लिनक्स ओएस को पूरी तरह स्थानीयकृत कर उपलब्ध कराना तथा इन्हें इस क्षेत्र में अच्छी सफलता मिली है। गुजराती भाषा समुदाय को कम्प्यूटर की ताकत देने में उत्कर्ष (www.utkarsh.org) का योगदान काफी बड़ा है। यह सबसे व्यवस्थित- व्यावसायिक संगठनों में से एक है। इंडियनओएसएस (www.indianoss.org) गुजराती कम्प्यूटिंग के लिए प्रतिबद्ध दूसरा बड़ा नाम है। तमिल के कई सक्रिय समुदाय है- http://sourceforge.net/projects/zha बड़े प्रयासों में से एक है। तमिल लिनक्स (http://groups.yahoo.com/group/tamilinix) लिनक्स/यूनिक्स पर विकसित दूसरा महत्वपूर्ण समूह है. भारत में भारतीय भाषाआें में ओपनऑफिस लाने के लिए आईसीटी रिसर्च एंड ट्रेनिंग सेन्टर द्वारा भारतीयओओ परियोजना (http://trinetra.ncb.ernet.in/bharateeyaoo) पहला कदम है। यह काम डेवलेपमेंट गेटवे फाउन्डेसन के क्रियाकलाप के रूप में किया जा रहा है।

हिन्दी भाषा के लिए कई संगठन काम करते हैं। इंडलिनक्स ने भी अपना काम हिन्दी से ही शुरू किया। हिन्दी के लिए विभिन्न परियोजनाओं को एक सूत्र में बांधने के इरादे से सोर्सफोर्ज पर हिन्दी प्रोजेक्ट (http://hindi.sourceforge.net ) भी शुरू हुई है। यह मूलतः फेडोरा, गनोम, केडीई, मोजिला, और ओपनऑफिस पर केंद्रित किए हुए है। मलयालम परियोजना (http://malayalam.sarovar.org) मलयालम पैकेज के लिए टाईप सेटिंग के वास्ते माक्रोस और फोन्टस का एक सेट ऑफर करता है, जो दक्षिण भारतीय राज्य केरल के अनुमानित सवा तीन करोड़ लोगों की प्राथमिक भाषा है। सरोवर परियोजना (http://sarovar.org/projects/oriya/) ओड़िया में लिनक्स को उपलब्ध कराने का पहला चरण है। जीएनयू/लिनक्स तेलुगु लोकलाइजेशन एफर्ट (http://telugu.sarovar.org) सामान्य अनुप्रयोगों को जीएनयू/लिनक्स गनोम, केडीई, मोजिला और ओपेन आफिस सहित सबको स्थानीयकृत बनाने का लक्ष्य रखता है। स्वतंत्र मलयालम कम्प्यूटिंग (http://sarovar.org/projects/smc) मौजूदा समय में जीएनयू/लिनक्स आलेखीय अंतरफलक को मलयालम में अनूदित/स्थानीयकृत करने हेतु रोशनी प्रदान करता है। स्वतंत्र मलयालम फोंटस (http://sarovar.org/projects/smf) स्वतंत्र मलयालम कंप्यूटिंग की एक सहायक परियोजना है। इसका मकसद मलयालम फोंटस को प्रर्याप्त आजादी देना है। इंडिक ट्रांस (www.indictrans.org) भारतीय भाषाओं में लिनक्स स्थानीयकरण के लिए कार्य करता है। इंडिक-कंप्यूटिंग प्रोजेक्ट (http://indic-computing.sourceforge.net) भारतीय भाषा कंप्यूटिंग सवालों के लिए तकनीकी दस्तावेज मुहैया कराता है। और कई नाम हैं: कन्नड़ लोकलाईजेशन इनीशियेटिव (http://kannada.sourceforge.net) कन्नड़ की भाषा के लिए कार्य करता है और तमिज लिनक्स (http://www.thamizhlinux.org) तमिल भाषा में एक दूसरा प्रयास है। फ्री सॉफ्टवेयर लोकलाइजेशन इन असामीज (http://sourceforge.net/projects/luit) असमिया भाषा के लिए कार्य करता है। मराठा ओपेन सोर्स (http://groups.yahoo.com/group/MarathiOpenSource) मराठी भाषा के लिए। स्वेच्छा (www.swecha.org) जो तेलुगु भाषा के वास्ते प्रयास करता है। मैथिली जो भारत के बिहार राज्य के खास क्षेत्र में बोली जाती है और जिसे पिछले वर्षों में भारतीय संविधान की अनूसूची में शामिल किया गया है, के लिए भी एक परियोजना मैथिली कंप्यूटिंग रिसर्च सेंटर (http://maithili.sourceforge.net) नाम से शुरू हुई है। बिहार में ही मूल रूप से ज्यादा बोली जाने वाली परंतु व्यापक रूप से लोकप्रिय भोजपुरी भाषा के लिए भी काम शुरू हो चुका है. भोजपुरी कंप्यूटिंग सेंटर (http://bhojpuri.sourceforge.net) नाम से यह कोशिश पटना में रहने वाले एक समूह की कोशिशों का नतीजा है। इन सबसे समझा जा सकता है कि मुक्त श्रोत कंप्यूटिंग का कितना फैलाव हो चुका है. उदाहरणों से पता चलता है कि पारदर्शी एवं सामूहिक ऑपेन सोर्स लोकलाईजेशन और इसकी प्रणाली बड़ी सतर्क एवं जवाबदेह है। फिर भी कई भाषाओं पर काम होना अभी बचा है। भारत जैसे भाषाई वैविध्य रखने वाले देश में और प्रयास की जरूरत है।

यदि भारतीय उप महाद्वीप के वर्णन के लिए यदि कोई बीजशब्द का इस्तेमाल किया जाय तो वह निश्चित रूप से होगी विविधता। भारत में तकरीबन 500 भाषाएँ हैं जिसमें 22 भाषाएं संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल है। स्थिति की कल्पना इससे की जा सकती है कि सिर्फ एक छोटा सा मुल्क नेपाल जहाँ 50 से अधिक भाषाएँ हैं। देर सबेर ये सभी छोटी भाषाएँ सूचना प्रौद्योगिकी के साथ कंधे से कंधे मिला कर चलने की उम्मीद तो कर सकती है, लेकिन सिर्फ फ्री साफ्टवेयर के दर्शन के ही सहारे। भारत के पड़ोसी देशों में भी लोकलाइजेशन आंदोलन की शुरूआत हो चुकी है। पर्वतीय भाषा- गोरखाली यानी नेपाली बोलने वालों की संख्या फकत 16 लाख है। गत वर्ष नेपाली भाषा में लोकलाईजेशन के क्षेत्र में मदन पुरस्कार पुस्तकालय (www.mpp.org.np) के साथ कार्य करने वाले एक समूह ने सार्थक पहल कर महत्वपूर्ण गति प्रदान की है। इस समूह ने गनोम डेस्कटॉप को पूरी तरह स्थानीयकृत किया है. भूटानी जो भूटानी राजतंत्र की राष्ट्रभाषा है, को पूर्णत: लोकलाइज्ड किया है। Dzongkha लोकलाइजेशन प्रोजेक्ट (http://dzongkha.sourceforge.net) का उद्देश्य Dzongkha स्क्रिप्ट को लिनक्स साथ जोड़कर इसे मजबूत करना है ताकि भूटान के आम नागरिकों को सूचना एवं संचार तकनीक का लााभ मिल सके। यह परियोजना भूटान की राजकीय सरकार द्वारा लागू की गई है और यह इन्टरनेशनल डेवलपमेंट रिसर्च सेंटर (IDRC) कनाडा के पैन एशिया नेटवर्किंग (PAN) द्वारा

वित्त प्रदत्त है। सिंहाला लिनक्स प्रोजेक्ट (http://sinhala.linux.lk ) एक दूसरी परियोजना है सिंहाला में लिनक्स के स्थानीयकरण का। यह लंका लिनक्स यूजर ग्रुप (LKLUG) द्वारा प्रारंभ किया गया। पैन लोकलाइजेशन प्रोजेक्ट (www.panl10n.net) का व्यापक परिसर है। एशिया में स्थानीय भाषा क्षमता विकसित करने का यह एक क्षेत्रीय प्रयास है। यह संगठन निम्नलिखित भाषाआें के लिए कार्य करता है: बांग्ला, भूटानी, ख्मेर, लाओ, नेपाली, पश्तो, सिंहाला और उर्दू!

प्राय: सबल भाषा अल्पसंख्यक भाषा को दबाती है। लेकिन पाकिस्तान में पंजाबी भाषा के साथ इस तरह की बात नहीं है। पाकिस्तान में पंजाबी भाषा बहुसंख्यकों की भाषा है। लेकिन वहाँ की सरकार इस भाषा को मदद करती नहीं मालूम पड़ती है। इसीलिए पनलिनक्स ने शामुखी स्क्रिप्ट में पंजाबी भाषा के स्थानीयकरण के वास्ते शुरू करने की योजना बनायी है। और इसे अलग लोकेल देने हेतु आग्रह पहले ही किया जा चुका है। यह सिर्फ आपेन सोर्स की दुनिया में संभव हो सकता है। लोकतंत्र की तरह ही जहाँ हर आदमी बराबर है, प्रत्येक भाषा को कंप्यूटर की तकनीक में एक जैसा दर्जा दिया जा सकता है।

मुक्त श्रोत सॉफ्टवेयर का स्थानीयकरण पारदर्शी और समुदाय चालित प्रक्रिया है। यही वजह है कि स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप साफ्टवेयर को पसंदीदा करना आसान है। कभी-कभी सांस्कृतिक विभिन्नताओं के चलते लोग पश्चिमी प्रयोक्ता अंतरफलक के साथ सुविधा महसूस नहीं करते। लेकिन कठिनाई यहीं समाप्त नहीं हो जाती। फोल्डर्स और रिसाइकिल बींस को समझने के लिए होने वाले विशिष्ट ग्रामीण भारतीय संघर्ष की कल्पना करें! खासकर व्यापक भाषा हिन्दी के मामले में और बंगाली व पंजाबी के मामले में जो दो भिन्न देशों में बोली

जाती है। एक सच्चाई है कि पूरी भाषा बुनियादी तौर पर दो पड़ोसी देशों में विभिन्न क्षेत्रों में विभक्त है। भारत की आधी से अधिक आबादी में हिन्दी बोली और समझी जाती है और इसकी अनगिनत बोलियां है। ओपन सोर्स के माहोल में लाभ-हानि के सिद्धांत को ध्यान दिये वगैर विशिष्ट जरूरतों के मुताबिक वस्तुओं को ढालना ज्यादा आसान है। ओपन सोर्स मॉडेल न सिर्फ स्थानीय आवश्यकताओं को पाने में मदद करता है, बल्कि स्थानीय भावनाओं के आदर का भी ख्याल रखता है। यहां अगर समुदाय की इच्छा हो तो वह भाषा की सांस्कृतिक अंतरों के आधार पर भाषा के लिए अलग अलग लोकेल की मांग भी कर सकती है और ऐसा कोई मुक्त श्रोत की दुनिया में अनजाना नहीं है। मुख्य रूप से ओपेन सोर्स के लोकलाइजेशन में ही भविष्य की भाषा को कंप्यूटिग करने की ताकत है।

स्थानीयकरण हेतु प्रयास को सफलीभूत व रोचक बनाने में रेड हैट का योगदान बेमिसाल है। पाँच भारतीय भाषाओं (हिन्दी, बंगाली, तमिल पंजाबी एवं गुजराती) का चयन तीन वर्ष पहले ही कर रेड हैट भारतीय आवश्यकताओं से संबंधित लोकलाइजेशन (l10n) और अंतरराष्ट्रीयकरण (i18n) कार्यों को अपने उत्पाद में बड़ी व्यापकता से सम्मलित किया है। स्थानीय भाषाओं में कंप्यूटर पर कार्य करना कभी भी इतना आसान नहीं था। रेड हैट एन्टरप्राइज लिनक्स पाँच भारतीय भाषाओं में पहले ही जारी किया जा चुका है और उसे न केवल अनुप्रयोगों के स्तर बल्कि ऑपरेटिंग सिस्टम स्तर पर भी स्थानीयकृत किया गया। रेड हैट ने इस पांचवें संस्करण से कुछ और भाषाओं में ऐसे प्रयासों को समर्थन देना शुरू कर दिया है - आसामी, कन्नड़, मलयालम, मराठी, ओड़िया, सिंहाला, और तेलुगु। भारत एवं इसकी स्थानीय भाषा कंप्यूटिंग उद्योग के प्रति रेड हैट की संवेदना एवं वचनवद्धता को दर्शाने के लिए यह काफी है।

भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने एक बार कहा- ”भारत में ऑपेन सोर्स कोड साफ्टवेयर को हमारे करोड़ो लोगों के हित के लिए आना और स्थायी रूप से ठहरना होगा”। भारत जैसे गरीब मुल्क में जहाँ प्रति व्यक्ति आय औसत से बहुत कम है, जनाब कलाम साहब के लब्ज इस देश के लिए महत्वपूर्ण आधार वाक्य होना चाहिये। ये सभी स्थानीयकृत कंप्यूटर ग्रामीण कंप्यूटिंग के क्षेत्र में बड़ा लाभदायक होगा। सच्चे भारत के लोग सिर्फ अपनी नेटिव लेंगवेंज बोलते हैं। उनके लिए अंग्रेजी ब्रिटानिया प्रभाव तथा शोषण की भाषा एवं संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। भारत में, खासकर देहाती क्षेत्रों में रेडियो एवं टीवी के गहरे प्रभाव के कारण का विश्लेषण करने से हम समझ सकते हैं कि इसका मुख्य कारण स्थानीय भाषाओं में टी.वी. कार्यक्रमों के प्रस्तुति की उपलब्धता है। भारत में स्थानीयकरण आन्दोलन ने विदेशी कंप्यूटर को देशी में बदल दिया है - हमारा कंप्यूटर, आपका कंप्यूटर। स्थानीय भाषा आईटी बाजार विकासशील अवस्था में है और यह लगातार बढ़ रहा है। ई - गर्वनेंस एक बृहत क्षेत्र हैं जहाँ लोकलाइजेशन सॉफ्टवेयर की नितांत आवश्यकता है। हार्डवेयर की कीमत बड़ी तेजी से गिरती जा रही है और इस संदर्भ में स्थानीयकृत ऑपेन सोर्स सॉफ्टवेयर श्रेष्ठ व भरोसेमंद है।

बीते वर्ष सरकार ने सभी 22 राजकीय भाषाओं में सीडी जारी करने का व्यापक कार्यक्रम शुरू किया है। हिन्दी, तमिल तथा तेलगू भाषा की सीडी पहले ही लांच कर चुकी है। असामी, कन्नड़, मलयालम, मराठी, ओडिया, पंजाबी और उर्दू की सीडी भी जारी किया जा चुका है। साथ ही कई अन्य भाषाओं पर काम जारी हैं जिसे निकट भविष्य में ही जारी करने की योजना है। सीडी पर उपलब्ध ज्यादातर अनुप्रयोग जनरल पब्लिक लाइसेंस के तहत जारी किये गये। यह भारत में स्थानीयकरण आन्दोलन की कामयाबी की बड़ी कहानी है। यह भारत सरकार द्वारा वित्त प्रदत्त है। इसके तहत करोड़ों सीडी आम लोगों के बीच भेजे जा रहे हैं। कोई भी व्यक्ति मुफ्त की भाषा सीडी के लिए आवेदन कर सकता है। इंडिक्स (www.cdacmumbai.in/projects/indix ) भारतीय भाषाओं के लिए प्रौद्योगिकी विकास (http://tdil.mit.gov.in ) द्वारा वित्त पोषित एक और परियोजना है जो लिनक्स की सहायता के लिए भारतीय भाषा में कार्य करता है। सरकारी संगठन सीडैक (http://www.cdac.in) ने भी ऑपेन सोर्स सॉफ्टवेयर के स्थानीयकरण के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया है और इन सरकारी प्रयासों से मूलभूत रूप से जुड़ा है।

भारत में अनेकों लोग एवं कई संगठन हैं जो ऑपेन सोर्स विचारधारा के पक्षधर रहे हैं। इसका एक प्रभावशाली व अनोखा उदाहरण है - महात्मा गांधी अर्न्तराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा जिसकी 1997 ई. में स्थापना हिन्दी का वैश्विक स्तर पर प्रचार प्रसार के लिए की गई थी। प्रख्यात हिन्दी कवि एवं भारत सरकार में संस्कृति मंत्रालय में सचिव रह चुके अशोक वाजपेयी इस विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति थे और उन्होंने विश्वविद्यालय को पूर्ण रूपेण ऑपेन सोर्स के जरिये चलाने का निर्णय लिया था। अपने कार्यकाल के दौरान श्री वाजपेयी ने दो किताबें (हिन्दी में) और एक द्विभाषिक पत्रिका लीला (हिन्दी और अंग्रेजी) पूर्ण रूप से ऑपेन सोर्स टेक्नालोजी के आधार पर प्रकाशित करवाए थे। स्थानीय भाषा में कार्य करने वाले साफ्टवेयर खासकर हिन्दी में ओपन सोर्स कंप्यूटर आधारित तकनीक को अपने परिसर में स्थान देना यही विश्वविद्यालय का मुख्य लक्ष्य था। इसे अोपन श्रोत का दुर्भाग्य कहेंगे कि उनके कार्यावधि के बाद स्थिति उतनी सकारात्मक नहीं रही।

दिल्ली स्थित गैर लाभकारी संस्था सराय (www.sarai.net) मुक्त सॉफ्टवेयर का उपयोग, प्रचार एवं विकास के प्रति पूर्ण रूपेण वचनबद्ध है। कुछ भारतीय भाषाओं के स्थानीयकरण में सराय ने मुख्य भूमिका अदा की है। सराय के मुताबिक फ्री साफ्टवेयर कोड पर मालिकाना नियंत्रण के वास्ते प्रजातांत्रिक विकल्प के रूप में प्रकट हुआ। सराय ने अनेकों लोगों को संग-साथ देकर एवं कई कार्यशाला खोलकर इस क्षेत्र में भाग लेने तथा इसे परिवर्धित करने के लिए प्रोत्साहित किया है और लगातार कर रहा है।

वस्तुतः मुक्त श्रोत के प्रयास बचे हुए बैबल की मीनार को पूरा करने के काम जैसा है. बाइबिल में वर्णित एक कथा के मुताबिक पहले इतनी भाषाएं नहीं थीं. सिर्फ एक भाषा थी जिसमें लोग अपनी भावना, पीड़ा, दुख-सुख, मौज-मस्ती बांटते थे। वही एक भाषा ज्ञान की भाषा थी, वही विज्ञान की भाषा थी। भाषा एक मानवता एक। समग्र मानवता ने एकबार सोचा कि क्यों न ऐसी मीनार बनाई जाए जो स्वर्ग तक जा सके ताकि स्वर्ग की हकीकत सामने आ सके. ताकि अंतिम सत्य पाया जा सके. लेकिन ईश्वर को यह कहां मंजूर था। यह तो ईश्वर की सत्ता को खुली चुनौती थी। उन्होंने सोचा कि सबसे बढ़िया तरीका है कि सबों की भाषाएं अलग-अलग कर दी जाए…और फिर सबों की भाषाएं अलग-अलग हो गईं। एक ऐसी दुनिया रच दी ईश्वर ने जिसमें कोई किसी की भाषा नहीं समझता था…मीनार वहीं रूक गई। स्वर्ग तक न पहुँचा जा सका। जिह्वा-भ्रम की वह स्थिति आज भी ज्ञान के विकेंद्रीकरण के बीच बड़ी दीवार बनकर खड़ी है। खासकर कंप्यूटर व आईटी जैसे क्षेत्रों में यह बड़ी रूकावट है। शासन व शोषण की भाषा अंग्रेजी में कंप्यूटर आम आदमी की समझ से बाहर है…वैसे में ओपन सोर्स एक रास्ता दिखाती है जिसपर हर कोई आ-जा सकता है. वहां हर भाषा समान है चाहे वह करोड़ों के द्वारा बोली जाती हो या कुछ चंद लोगों के द्वारा। गौरतलब है मुक्त श्रोत सर्वोत्तम की उत्तरजीविता के बजाय सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय का काम करती है. तभी तो इनके द्वारा पंजीकृत भाषाओं की सूची में पांच-दस रणनीतिक रूप से सबल भाषाएं नहीं दिखती बल्कि करीब सौ भाषाएं दिखाई देती हैं, जिसपर काम करने के लिए कोई स्वामित्ववादी कंपनियां सोच भी नहीं सकती हैं।

यह आंदोलन खुला है…इसका आप भी हिस्सा हो सकते हैं, आप भी शिरकत कर सकते हैं. बड़े स्तर पर भाषा के लिए की जा रही इस कार सेवा में आप भी योगदान दे सकते हैं। यह समुदाय समर्थित दुनिया है, जो मुक्त श्रोत सॉफ्टवेयर की दुनिया है। एक ऐसी बड़ी, व्यापक और ज्यादा भरोसेमंद दुनिया जो आपको पूरा का पूरा दरवाजा खोलकर आपको गले से लगाती है और कहती है कि आइए और हमारे साथ आप दुनिया को अंतर्वस्तु के लोकतंत्रीकरण की ओर ले जाइए, जहां तकनीक एक खास किस्म की बपौती न हो…यानी जहां ज्ञान दीवार विहीन हो…ज्ञान मुक्त हो। स्वामित्ववादी कंपनियां अपने केंद्र में लाभ को रखती है और जाहिर है अगर आप उसकी पूंजी में इजाफा नहीं कर सकते हैं… तो आप बेकार हैं, आपकी भाषा फालतू है। यही नहीं भारत जैसे औपनिवेशिक स्वरूप वाले देश में जहां अंग्रेजी आम भारतीय के लिए अनिवार्य सर दर्द बनकर साथ चल रहा है वहां वे कंपनियां यह भी सोचती हैं कि आखिर भारत में जरूरत क्या है अपने सामानों को भाषाओं में रखने की। ज्यादा से ज्यादा हम हिन्दी में दे देंगे वह भी किसी एजेंसी से अनुवाद करवाकर। उन्हें खाना पूर्ति के लिए भाषा चाहिए पर आपके और हमारे लिए भाषा हमारी सांसें हैं हमारी जिंदगी है। इसलिए अगर कोई कंप्यूटर उत्पाद का निर्माता अगर स्थानीय भाषा में करने की मशक्कत भी करता है तो हिन्दी और दो-एक महत्वपूर्ण भाषाओं में। शेष भाषाएं तकनीक की भागम-भाग में पीछे छूटती जा रही है. पन्नों के स्थान वैब पेज ले रहें हैं। किताबों का स्थान ई-पुस्तकें ले रही हैं. कहीं तकनीक सबल भाषाएं कमजोर भाषाओं को लील न ले। चिंता और चिंतन दोनों जरूरी है कि कैसे इससे बचा जाए. हम बचा सकते हैं अपनी भाषा को इस आभासी मायावी दुनिया में खोने से। और निश्चित रूप से तरीका हमें ओपन सोर्स सुझाता है… समुदाय के जनपथ पर बढ़िये और हासिल कीजिए वह सब जिसे आप कल तक सपना समझते थे।

स्थानीयकरण का कार्य काफी पहले शुरू हुआ और अब यह आन्दोलन का रूप ले चुका है। इन्टरनेट की उपलब्धता, संसाधनों का अभाव और निरक्षरता स्थानीय भाषा कंप्यूटिंग के रास्ते में कुछ बाधाएं है। सबसे बड़ी बाधा अंग्रेजी बोलने वालों की मानसिकता है जो स्थानीय भाषा में कंप्यूटिंग की कोशिशों का मजाक उड़ाता है। ऐसे लोगो के पास सरजमीनी अनुभव नहीं हैं, लेकिन अभी भी वे लोग प्रशासन एवं वित्त में बड़ी पहुंच कायम किए हुए हैं लेकिन अन्तत: उन्हे स्थानीय भाषा कंप्यूटिंग बाजार के सामने झुकना होगा। दो दशक पूर्व, दूरदर्शन उद्योग की स्थिति भारत में वर्तमान कंप्यूटर उद्योग के तरह ही थी। सकारात्मक बदलाव अवश्यम्भावी है और कंप्यूटर के क्षेत्र में भी यह बहुत दूर नहीं है। कवि अशोक वाजपेयी ने एक मर्तबा लिखा था कि ज्ञान के नि:स्वार्थ प्रसार की भारतीय परंपरा बहुत पुरानी और वैश्विक है। हम लोग कह सकते है कि फ्री सॉफ्टवयेर आन्दोलन पुरानी भारतीय परंपरा का ही पाश्चात्य संस्करण है। श्री वाजपेयी की बात बहुत ठीक है और इसीलिए भविष्य में लंबी अवधि में भारतीय मिट्टी ओपेन सोर्स सॉफ्टवेयर के वास्ते खुद को उर्वर साबित करेगी। जहाँ ज्ञान हो मुक्त नोबेल पुरस्कार प्राप्त कवि रवीन्द्र नाथ टेगौर का अपने राष्ट्र के लिए सपना था। समय अब उस स्वप्नलोक की ओर आगे बढ़ रहा है।

3 comments:

रवि रतलामी said...

स्थानीयकरण पर परिपूर्ण आलेख है.

हिन्दी चिट्ठाजगत् में स्वागत है.

अनुनाद सिंह said...

राजेश जी,
आपका हिन्दी चिट्ठाकारी में स्वागत है।

आपको पाकर विशेषरूप से खुशी हो रही है कि आप भारतीय भाषाओं में कम्प्यूटिंग तथा स्थानीयकरण के प्रबल समर्थक लग रहे हैं हैं।

आपका पहला ही पोस्ट भारतीय भाषाओं के हितचिन्तकों के लिये अत्यन्त उत्साहवर्धक और जानकारी से भरपूर है।

राजेश रंजन / Rajesh Ranjan said...

आप लोगों का बहुत-बहुत शुक्रिया.