अब देखिए ये लोग कहते हैं कि भारत में अंग्रेजी का प्रसार धीमा है...
"रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में अंग्रेज़ी भाषा का प्रसार अत्यंत धीमा है जो भारत को उन देशों की तुलना में पीछे कर सकता है जिन्होंने प्राइमरी स्तर पर अंग्रेजी की पढ़ाई को बेहतर ढंग से लागू किया है.
इतना ही नहीं रिपोर्ट के अनुसार देश में अंग्रेज़ी पढ़ाने वाले शिक्षकों की कमी है जिससे राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेज़ी भाषा जानने वालों की संख्या तेज़ी से नहीं बढ़ रही है."
अब कितना बढ़ाना चाहते हैं भारत में अंग्रेजी को ये लोग...यानी हम अगर हिंदी को भूल जाएँ तो शायद सबसे अधिक आर्थिक प्रगति होगी.
Wednesday, November 18, 2009
Wednesday, November 11, 2009
मैथिली कंप्यूटर के जारी होने की ख़बर आउटलुक पर
मैथिली कंप्यूटर के रिलीज होने की ख़बर आउटलुक पर आई है...थोड़ी पुरानी हो गई है लेकिन हमारे पास वह अंक अभी हाल में ही आया है. गौरतलब है कि फेडोरा, जो कि लिनक्स का एक लोकप्रिय वितरण है, के साथ अब मैथिली भाषा भी समर्थित रूप में रिलीज हो रही है. यह वाकई मैथिली के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि कई तथाकथित रूप से अधिक महत्वपूर्ण भाषाओं में अभी तक यह काम संभव नहीं हो पाया. कई तकनीकी समस्याओं से आगे बढ़ते हुए करीब दस लाख शब्दों के अनुवाद ने हमें सुकून तो जरूर दिया है कि हमने मैथिली भाषा के लिए कुछ कर पाया है. धन्यवाद के पात्र हैं इनसे जुड़े लोग खासकर संगीता, पराग, राकेश, अमन आदि. जाने माने पत्रकार और आउटलुक के संपादक नीलाभ जी का बहुत बहुत शुक्रिया.
Wednesday, November 4, 2009
www.हिंदी.भारत या www.हिन्दी.भारत
मुझे पूरी तरह पता नहीं आईडीएन पर कितना ब्लॉग (रवि रतलामी जी और कुछेक लोगों का तो पढ़ा है) लिखा गया है फिर भी सोचता हूँ कि यह जानकारी आपसे साझा करनी चाहिए. अभी पिछले सप्ताह सीडैक के द्वारा आयोजित आईडीएन की जागरूकता कार्यशाला में पूरे दिन बैठा था और वहां पर .in के लिए आईडीएन में टॉप लेबल डोमेन के लिए जारी किए गए मसौदा नीति दस्तावेज़ पर चर्चा हुई थी और वहीं मुझे पता चला कि .in का भारतीय भाषाओं में स्थानापन्न .भारत आया है अलग अलग भाषाओं में लिप्यंतरित रूप में. लेकिन www बरकरार है हालांकि बताया गया कि विश्व की कुछ दूसरी भाषाओं ने कुछ ववव की तरह का अपनाया है और इसे यहाँ भी अपनाया जा सकता था. वैसे मुझे तो जगत जोड़ता जाल यानी जजज काफी बढ़िया लगता है लेकिन www को नहीं छेड़ा गया है. हालांकि ब्राउज़र में अब इसे लिखने की जरुरत नहीं रह गई है फिर भी यदि किसी को लगे तो वे अपना फीडबैक तो उन तक पहुँचा ही सकते हैं.
आईडीएन खासकर टॉप लेबल डोमेन के रूप में काफी नई चीज़ होगी और चूँकि .in का नियंत्रण भारत सरकार के हाथ में है तो सरकार के पास इनके अंतरराष्ट्रीयकृत स्वरूप का अधिकार है. हालांकि अन्य जीटीएलडी यानी .कॉम जैसी संभावनाएँ भी दूर नहीं हैं. उक्त मसौदा नीति दस्तावेज़ में कुछ महत्वपूर्ण बातें हैं कि हम ZWJ और ZWNJ को नहीं दाखिल कर पाएंगे और साथ ही कुछ एक समान दिखने वाले संयुक्ताक्षर यानी होमोग्राफ जैसी चीजें जो कि वेबसाइट पर धोखाधड़ी को बढ़ावा दे उसे भी दाखिल नहीं कर पाएंगे. इसका कारण है कि डोमेन नाम अपने स्थान पर इतना छोटा दिखता है कि कोई सामान्य उपयोक्ता अंतर शायद न कर पाए और वह किसी चक्कर में आ जाए. यहां देखना जरूरी होगा कि हिंदी और हिन्दी को color और colour की तरह दो भिन्न रूप में बुक किया जा सकता है. इन नियमों के अंतर्गत ही हम रजिस्ट्री पर किसी भी डोमेन की बुकिंग के लिए आवेदन कर पाएंगे. कुछ खासा तकनीकी बातें हैं जिसे आप उनके मसौदे पर जाकर देख सकते हैं.
यह देखना वाकई सुकून देने वाला तो होगा ही कि हम अपना डोमेन नाम भी अपनी भाषा में रख सकते हैं. बस अपना अपना डोमेन नाम बुक करने के लिए कमर कस लीजिए.
आईडीएन खासकर टॉप लेबल डोमेन के रूप में काफी नई चीज़ होगी और चूँकि .in का नियंत्रण भारत सरकार के हाथ में है तो सरकार के पास इनके अंतरराष्ट्रीयकृत स्वरूप का अधिकार है. हालांकि अन्य जीटीएलडी यानी .कॉम जैसी संभावनाएँ भी दूर नहीं हैं. उक्त मसौदा नीति दस्तावेज़ में कुछ महत्वपूर्ण बातें हैं कि हम ZWJ और ZWNJ को नहीं दाखिल कर पाएंगे और साथ ही कुछ एक समान दिखने वाले संयुक्ताक्षर यानी होमोग्राफ जैसी चीजें जो कि वेबसाइट पर धोखाधड़ी को बढ़ावा दे उसे भी दाखिल नहीं कर पाएंगे. इसका कारण है कि डोमेन नाम अपने स्थान पर इतना छोटा दिखता है कि कोई सामान्य उपयोक्ता अंतर शायद न कर पाए और वह किसी चक्कर में आ जाए. यहां देखना जरूरी होगा कि हिंदी और हिन्दी को color और colour की तरह दो भिन्न रूप में बुक किया जा सकता है. इन नियमों के अंतर्गत ही हम रजिस्ट्री पर किसी भी डोमेन की बुकिंग के लिए आवेदन कर पाएंगे. कुछ खासा तकनीकी बातें हैं जिसे आप उनके मसौदे पर जाकर देख सकते हैं.
यह देखना वाकई सुकून देने वाला तो होगा ही कि हम अपना डोमेन नाम भी अपनी भाषा में रख सकते हैं. बस अपना अपना डोमेन नाम बुक करने के लिए कमर कस लीजिए.
Sunday, September 13, 2009
हिंदी माँ है तो अंग्रेजी वाइफ
मैं हिंदी पर एक व्यक्ति के वक्तव्य को भूल नहीं पा रहा हूँ जिन्होंने बस यूँ ही अनौपचारिक बातचीत में बस झुंझलाते हुए कह डाला था कि हिंदी माँ है लेकिन अंग्रेजी वाइफ का दर्जा पा चुकी है. और वह माँ भी अब उसके साथ नहीं रहती है दूर दराज किसी गांव में रहती है जिसकी याद वह कभी-कभार कर लिया करता है. आज अचानक यह बात फिर बहुत जोर से याद आई क्योंकि बीच रात में कुत्तों की बिना वजह (मेरी दृष्टि में) भौंकने की आवाज से जब नींद ने बीच में ही साथ छोड़ दिया तो पाया कि लैपटॉप का कैलेंडर आज के दिन को चौदह सितंबर बता रहा है.
मुझे, खासकर आज, उस व्यक्ति की बात सही लगती है. थोड़ी चुभती भी है लेकिन बहुत हद सही भी लगती है. क्या हिंदी सचमुच उन माँओं के तरह है जो अंग्रेजी वाइफ की वजह से अपने ही द्वारा सजे संवारे गए घरों से बाहर है. बेटों को उसकी याद तो आती है लेकिन क्या करेगा वाइफ के बिना कितने दिन रहेगा...अब वही तो उसका भविष्य है. उसी के साथ उसका उठना, बैठना, कहना, सुनना है. वही अंग्रेजी तो है जो उसकी आमदनी में कुछ जोड़ती है. हिंदी तो खर्चे की ही घर है. वह लाएगी क्या, उस पर उल्टा खर्च ही करना पड़ेगा. रहने दो उसे गांव में. वहाँ इलाज, रहने-सहने का खर्चा भी कम ही है. जब भी दिल को थोड़ी-बहुत अपने कमीनेपन का एहसास होगा तो कुछ मनीऑर्डर कर दूँगा. अब देखिए वह इस शहर में आकर क्या करेगी. रोज की बीवी से झगड़े कौन सहे. पिज्जा, बर्गर को कोक पेप्सी के साथ को वह खाती नहीं है. ब्रेड-मैगी से उसे उबकाई आती है. फिर कौन उसके लिए रोटी, सब्जी बनाए. किसे फुरसत है. बीवी को. फिर, वह बड़े लोगों के तौर-तरीके भी तो नहीं जानती है. अब उसे क्या-क्या पढ़ाऊँ. जब वह बोलती है तो लोग उसका मजाक बनाते हैं, उसकी बात को सुनते ही नहीं. उसके पोते-पोती भी तो नहीं समझते उसकी बात को. हँसते हैं उसपर. हाँ उसने जन्म दिया है लेकिन उसका क्या. अगर साथ रहा तो जिंदगी ही आफत. अगर उसके साथ जिंदगी चलाने की सोचूं तो आप समझ सकते हैं क्या क्या दिक्कत होगी. शायद जी ही ना पाऊँ. ऐसा नहीं है मैं उसे प्यार नहीं करता. आखिर माँ है मेरी. उसकी कोख से ही मेरे जैसे बुद्धिमान व्यक्ति का जन्म हुआ है. लेकिन क्या करता. आगे बढ़ने थे. सो थाम लिया हाथ. उसे हमारी संस्कृति का सलीका नहीं आता था. मिनी माइक्रो पहनती थी. लेकिन आज मैं जिस ऊँचाई पर हूँ उसी की वजह से हूँ. जीभ और जी को इन चीजों का अभ्यास तो नहीं था लेकिन क्या करता. मरता क्या न करता. लेकिन आज थोड़ा दुखी भी हूँ...आज मेरी माँ का जन्म दिन है. फोन किया था...माँ बीमार है. बूढ़ी तो हो ही गई है...डर लगता है!
मेरे इस ब्लॉग की इस टिप्पणी को भी अगर आप हिंदी दिवस के लिए किए जा रहे एक अनुष्ठानों में से एक मानें तो मुझे कोई गुरेज नहीं होगा. लेकिन मैं डर तो जरूर गया हूँ...आज इतना तो जरूर करना चाहूँगा कि मेरे ब्लॉग पर जो कुछ अंग्रेजी के अंश दिखाई दे रहे हैं...उन्हें मैं हटा दे रहा हूँ. मालूम है कि इससे उनकी की तबीयत में सुधार तो नहीं होगा फिर भी...!
मुझे, खासकर आज, उस व्यक्ति की बात सही लगती है. थोड़ी चुभती भी है लेकिन बहुत हद सही भी लगती है. क्या हिंदी सचमुच उन माँओं के तरह है जो अंग्रेजी वाइफ की वजह से अपने ही द्वारा सजे संवारे गए घरों से बाहर है. बेटों को उसकी याद तो आती है लेकिन क्या करेगा वाइफ के बिना कितने दिन रहेगा...अब वही तो उसका भविष्य है. उसी के साथ उसका उठना, बैठना, कहना, सुनना है. वही अंग्रेजी तो है जो उसकी आमदनी में कुछ जोड़ती है. हिंदी तो खर्चे की ही घर है. वह लाएगी क्या, उस पर उल्टा खर्च ही करना पड़ेगा. रहने दो उसे गांव में. वहाँ इलाज, रहने-सहने का खर्चा भी कम ही है. जब भी दिल को थोड़ी-बहुत अपने कमीनेपन का एहसास होगा तो कुछ मनीऑर्डर कर दूँगा. अब देखिए वह इस शहर में आकर क्या करेगी. रोज की बीवी से झगड़े कौन सहे. पिज्जा, बर्गर को कोक पेप्सी के साथ को वह खाती नहीं है. ब्रेड-मैगी से उसे उबकाई आती है. फिर कौन उसके लिए रोटी, सब्जी बनाए. किसे फुरसत है. बीवी को. फिर, वह बड़े लोगों के तौर-तरीके भी तो नहीं जानती है. अब उसे क्या-क्या पढ़ाऊँ. जब वह बोलती है तो लोग उसका मजाक बनाते हैं, उसकी बात को सुनते ही नहीं. उसके पोते-पोती भी तो नहीं समझते उसकी बात को. हँसते हैं उसपर. हाँ उसने जन्म दिया है लेकिन उसका क्या. अगर साथ रहा तो जिंदगी ही आफत. अगर उसके साथ जिंदगी चलाने की सोचूं तो आप समझ सकते हैं क्या क्या दिक्कत होगी. शायद जी ही ना पाऊँ. ऐसा नहीं है मैं उसे प्यार नहीं करता. आखिर माँ है मेरी. उसकी कोख से ही मेरे जैसे बुद्धिमान व्यक्ति का जन्म हुआ है. लेकिन क्या करता. आगे बढ़ने थे. सो थाम लिया हाथ. उसे हमारी संस्कृति का सलीका नहीं आता था. मिनी माइक्रो पहनती थी. लेकिन आज मैं जिस ऊँचाई पर हूँ उसी की वजह से हूँ. जीभ और जी को इन चीजों का अभ्यास तो नहीं था लेकिन क्या करता. मरता क्या न करता. लेकिन आज थोड़ा दुखी भी हूँ...आज मेरी माँ का जन्म दिन है. फोन किया था...माँ बीमार है. बूढ़ी तो हो ही गई है...डर लगता है!
मेरे इस ब्लॉग की इस टिप्पणी को भी अगर आप हिंदी दिवस के लिए किए जा रहे एक अनुष्ठानों में से एक मानें तो मुझे कोई गुरेज नहीं होगा. लेकिन मैं डर तो जरूर गया हूँ...आज इतना तो जरूर करना चाहूँगा कि मेरे ब्लॉग पर जो कुछ अंग्रेजी के अंश दिखाई दे रहे हैं...उन्हें मैं हटा दे रहा हूँ. मालूम है कि इससे उनकी की तबीयत में सुधार तो नहीं होगा फिर भी...!
Thursday, June 11, 2009
मैथिली भाषा में पूरा का पूरा कंप्यूटर जारी
फेडोरा 11 आ गया है और उसके साथ मैथिली भी आया है- पहली बार. पहली बार मैथिली भाषा में पूरा का पूरा डेस्कटॉप - संस्थापन से शुरू करके लगभग सारे अनुप्रयोगों को शामिल करते हुए. फेडोरा 11 में मैथिली के लिए विशेष रूप से तैयार लोहित फॉन्ट भी है. नए व तेज-तर्रार इनपुट विधि आईबस के प्रयोग से आप मैथिली में लिख सकते हैं. हमारे ब्लॉग में इसे रखने का एक बड़ा उद्देश्य यह है कि कुछ प्रयोक्ता जरूर इसे जाँचें और हमें सुझाव भेजें. हम यहाँ कुछ स्क्रीनशॉट रख रहे हैं. यहाँ फेडोरा के साथ दो डेस्कटॉप वातावरण उपलब्ध हैं - एक तो गनोम व दूसरा केडीई. दोनों को देखें. केडीई के कॉन्करर ब्राउजर का प्रयोग आप मैथिली में स्थानीयकृ ब्राउजर के रूप में कर सकते हैं. यहाँ फेडोरा में भारतीयओओ के द्वारा सुपुर्द किया गया ओपनऑफिस भी उपलब्ध है. इस तरह फेडोरा 11 में हर वह कुछ उपलब्ध है जो कि किसी एक डेस्कटॉप में सामान्य प्रयोक्ता को चाहिए होता है. इस सबके लिए दुनिया भर में काम कर रही समुदाय के साथ सराय संस्था तथा और इससे जुड़े रविकांत और गोरा का उल्लेख करना चाहूँगा जिसके समर्थन ने इसके काम को काफी बढ़ाया. रविशंकर श्रीवास्तव जी और करूणाकर जी का योगदान भी काफी महत्वपूर्ण रहा.मैं विशेष रूप से अमनप्रीत आलम और पराग नेमाडे को शुक्रिया देता हूँ जिन्होंने इससे जुड़े तकनीकी कार्य को काफी तत्परता से किया और इसे इस हालत में पहुँचाया कि यह इस रूप में रिलीज हो सका. यदि आप इसके अनुवाद को आगे बढ़ाने में या कुछ सुधार आदि में कोई मदद करना चाहते हैं तो आप यहाँ देखें. संगीता, जो मैथिली पर काम कर रही मुक्त स्रोत संगठन मैथिली कंप्यूटिंग रिसर्च सेंटर की देखरेख करती है, उन्हें भी मेरा शुक्रिया. उन्होंने काफी बड़े पैमाने पर स्थानीयकरण को संयोजन का काम किया है. ए. एन. सिन्हा समाज अध्ययन संस्था में फ्यूल की ओर आयोजित मानकीकरण कार्यशाला हालांकि साफी सफल रही लेकिन यहाँ हम उसके सुझाए बदलाव को पूरी तरह प्रयोग नहीं कर पाए हैं. संस्था के रजिस्ट्रार सर्वश्री ए.के.झा जी, महान भाषाविद् गोविंद झा जी, रघुवीर मोची जी, रमणजी जी, मोहन भारद्वाज जी जैसे लोगों ने हमें इसमें काफी सहयोग दिया था. तो फिर हम फ्यूल का पूरी तरह से उपयोग करते हुए फेडोरा 12 में अधिक परिष्कार के साथ आएंगे.
Thursday, March 5, 2009
गूढ़कील या गुड़किल्ली बनाम पासवर्ड
मैथिली फ़्यूल में कुछ बातें काफी खास रही थी.... वहाँ उपस्थित भाषाविदों व लेखकों, जिसमें गोविंद झा, अजय कु. झा, रामानंद झा रमण, मोहन भारद्वाज और रधुवीर मोची जैसे कई जाने-माने लोग उपस्थित थे - लगभग पूरे दो दिनों तक चले कार्यक्रम में - ने फ़ॉन्ट के लिए काँटा शब्द चुना...उनका कहना था कि यह शब्द काफी आम है और हम जब कंप्यूटर के जरिए प्रिंटिंग नहीं होती थी तब जब हरेक अक्षर को खुद बारी-बारी से खाँचे में बैठाना पड़ता था तो उस अक्षर को काँटा कहा जाता था. और उस समय लोग यह बोलते थे कि फलाँ काँटा काफी बढ़िया है तो फलाँ काफी खराब.
उसी तरह उनलोगों ने कूटशब्द के लिए मैथिली में गुड़किल्ली शब्द चुना. यह गूढ़कील से बना है. उन्होंने बताया कि कुम्हार के चाक में एक ऐसी गूढ़ कील होती थी जिसकी जानकारी सिर्फ उसी को रहती थी और बिना उसके चाक चलती नहीं थी. उनका तर्क दमदार था क्योंकि कमोवेश वही स्थिति कंप्यूटर के संदर्भ में भी होती है. और उन लोगों ने माना कि ऐसे शब्दों के लिप्यंतरण व शब्दानुवाद इसलिए भारतीय संदर्भ निरर्थक हैं और उसकी जड़ें जमीन में नहीं हैं.
सवाल रोचक हैं...और हमारी हिंदी के लिए भी उठते हैं. आप भी सोचें और बताएँ.
उसी तरह उनलोगों ने कूटशब्द के लिए मैथिली में गुड़किल्ली शब्द चुना. यह गूढ़कील से बना है. उन्होंने बताया कि कुम्हार के चाक में एक ऐसी गूढ़ कील होती थी जिसकी जानकारी सिर्फ उसी को रहती थी और बिना उसके चाक चलती नहीं थी. उनका तर्क दमदार था क्योंकि कमोवेश वही स्थिति कंप्यूटर के संदर्भ में भी होती है. और उन लोगों ने माना कि ऐसे शब्दों के लिप्यंतरण व शब्दानुवाद इसलिए भारतीय संदर्भ निरर्थक हैं और उसकी जड़ें जमीन में नहीं हैं.
सवाल रोचक हैं...और हमारी हिंदी के लिए भी उठते हैं. आप भी सोचें और बताएँ.
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