Thursday, November 27, 2008
जब एक काला दूसरे को काला कहता है
तो यह और खतरनाक स्थिति होती है...और कुछ ऐसी ही स्थिति मधुर भंडारकर ने अपनी फ़िल्म फ़ैशन में दिखाई है. हालांकि फ़िल्म आए काफी दिन हो गए हैं लेकिन यह मुद्दा कुछ ऐसा है जिस पर बार-बार लिखा जाना चाहिए. और मैं भी रोक नहीं पा रहा हूँ. हमें आश्चर्य होता है कि मधुर भंडारकर जैसे व्यक्ति ने कैसे इन चीजों को समझने की कोशिश नहीं की महज काले के साथ सोने से 'पतिता' वाली कोई बात नहीं होती है. क्या मुंह काला सिर्फ काले के साथ सोने से होता है. एक सवाल आता है कि हम कौन से 'गोरे' हैं अगर गोरापन ही ऐसे 'काम' के लिए कोई कसौटी होती है. यूँ तो पूरी फ़िल्म मोटे तौर पर लोगों को ठीक-ठाक लग रही है परंतु इस प्रकार के 'जातीय प्रतीक' ने सब कुछ बे-मजा कर दिया है. क्या और किसी भारतीयों के साथ नायिका का सोना गर्त में गिरने जैसा नहीं था. गौरतलब है कि यहाँ मैं निर्देशन के दूसरे पक्षों, अभियन आदि पर बात कतई नहीं कर रहा हूँ. इसमें कोई शक नहीं कि मधुर भंडारकर चलताऊ मसाला हिंदी फ़िल्म के दूसरे निर्देशकों से थोड़े भिन्न हैं...लेकिन ऐसे संवेदनशील मुद्दे सिनेमा को थोड़ा कमजोर बना देते हैं.
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